Mirago Naadi (Hindi)
In this story, Ganesh Rebari imbibes the essence of the oral tradition of the area while outlining the traditional knowledge and oral history of the traditional water systems of the region. This short story with photographs narrates an incident around a Naadi (a village pond) of his village-Dhandhaniya. The story is important as it comes in contemporary form with Marwadi vocabulary and with traditional symbols, metaphors and visuals that are linked with water. It is also important because it comes from a member of a marginalised community that still values the Nadis most, in absence of other traditional yet sophisticated water systems like Jhalara or Baori. The photographs in the story are also taken by the writer.
Dhandhaniya, Jodhpur
कहानी के बारे में
इस कहानी में गणेश रेबारी क्षेत्र के पारंपरिक जल प्रणालियों के पारंपरिक ज्ञान और मौखिक इतिहास को रेखांकित करते हैं। तस्वीरों के साथ यह लघुकथा उनके गाँव-ढांढनिया की एक नाडी (एक गाँव के तालाब) के आस-पास की घटना बताती है। कहानी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह समकालीन शैली में जल- संबंधी मारवाड़ी शब्दावली, पारंपरिक प्रतीकों, रूपकों और दृश्यों को साथ लाती है जो समुदाय के सदस्य द्वारा लिखी गयी है| यह कहानी इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्यूंकि यह उस पारंपरिक एवं सहकारी जलतंत्र की बात करती है जो अन्य पारंपरिक तथापि शहरी परिष्कृत जल प्रणालियों (जैसे झालरा या बावड़ी) से अलग है और घुमंतू समुदायों के लिए आज भी अत्यधिक महत्वपूर्ण है| कहानी में तस्वीरें भी लेखक द्वारा ली गई हैं।
Mirago Naadi (Audio Version)
मिरगो नाड़ी (दृश्य - कथन)

कभी-कभी मिरगो[1] माँ चार बजे उठ जाती है और जाकर नाडी[2] के आगोर[3] पार वाले टीले पर बैठ जाती है और तब तक बैठी रहती है जब तक सूर्यनारायण भगवान अपनी किरणों से सब को जगा ना दें।
आज सुबह भी मिरगो माँ जल्दी उठी और लौट के सीधा बाँ [4] के पास कोटडी़[5] में गयी| देर तक बाँ से शिकायती लहजे में कुछ-ना-कुछ कहते रही| माँ का धीमा स्वर है सो मैं सब-कुछ सुन नहीं पायी पर बाँ लगातर कह रहे थे ' म्है कऊ कर सकूँ, म्है कऊ कर सकूँ’[6]| माँ बड़ी देर बाद कोटड़ी से पग पटकते हुए ही आई जैसे किसी काम के लिए गयी हो और बाँ ने निराश कर दिया हो।
[1] मिरगो माँ - नाम (मिरगो: मृग का अपभ्रंश है) [2] तालाब [3] तालाब का वह ढाल वाला हिस्सा जो पानी इकठ्ठा करने में सहायता देता है| समुदाय के लोगों द्वारा इसे साफ़ रखा जाता है| [4] घर के बुजुर्गों के लिए सम्मान-सूचक शब्द [5] बैठक हेतू बड़ा सा झौपड़ा [6] मैं क्या कर सकता हूँ/ कर सकती हूँ|

रात का बियाळू[1] करने जब सब आँगन में बैठै तो मुझ से रहा नहीं गया| मैंने माँ से पुछ लिया- है औ माँ आज बाँ अर थै कऊ हथाई करता औ? [2]
मेरा पूछना हुआ और माँ ने पूरे गाँव को आडे हाथों ले लिया, कहने लगी - आज सुबह मेरी नीद साढ़े-तीन बजे खुल गई, उठी तो जाकर नाडी की धड़ी[3] पर जाकर बैठ गई| सामने नाडी पर पाँच गाड़ियाँ लगीं थीं जो बड़ी नाडी का पानी निकाल कर ले जा रहीं थीं और बेवड़[4] में किसी खेत से जैफू छीपा अपने ट्रेक्टर में रोहिडा़[5] काट के भर-भर ले जा रहा था| मेरा तो कालजा[6] जल गया| दुष्टों ने पता नहीं क्या करना मेरे स्वर्ग सरीखे गाँव का| तेरे ससुर को कहा तो कहने लगे - म्है कऊ कर सकूँ |
[1] रात का खाना [2] सुनो, ओ माँ!आज आप और बाँ क्या चर्चा कर रहे थे ? [3] रेत का छोटा टीला [4] गाँव का बाहरी हिस्सा जहाँ आबादी निवास ना करती हो [5] मरुक्षेत्रों का पेड़ जिसका फूल राजस्थान राज्य का राज्य-पुष्प है, और जिसकी लकड़ी सागवान के समान बहुपयोगी है| [6] कलेजा

कह के माँ ने मुहँ अजीब-सा बिगाड़ लिया| मैं भीतर-भीतर हँस रही थी पर मैने माँ को एहसास ना होने दिया कि मैं उनकी बात को हास्य-प्रंसग की भाँती सुन रही हूँ| माँ किसी बच्चे की भाँति परेशान हो रही थी| मेरी उत्सुकता बढी, मैंने पलट कर पूछा- है औ माँ ! तो आप को क्या परेशानी है, ऐसा तालाब और गाँव क्या हमारी जागीर है जो हम चिंता करें? माँ गुस्से से आँखे तरेर कर कहने लगी -जाँए नाजोगी गेलसफ़ी[1]|
[1] किसी भी कार्य के लिए अयोग्य और जिसका दिमाग फिर गया हो : मारवाड़ी में गाली

पंद्रह साल की थी तब इस गाँव, मैं बहू बन के आई थी | यहाँ के सब लोग तब तीन कौस दूर बैरी के गाँव से पानी लाते थे| वो तो भला हो मठ वाले बावसी[1] का जो नाडी खुदवाई| पूरे गाँव ने कई महीनों जी तोड़ महनत करी तब जाकर नाडी खुदी| और अब तो खैर फैमीन[2] से खोदतें हैं सारे काम चोर| तब तो लॉ[3] करके खुदवाई थी नाडी| पूरा गाँव उमड़ता था जैसे घर का काम हो|
[1] मठ के महंत [2] नरैगा में चलने वाले मजदूरों के समूह को फैमीन बोलते हैं| [3] कई लोग बगैर मजदूरी सामुहिक तौर पर काम करे|

माँ कुछ देर के लिए चुप हो गयी और फिर बोली- नाडी हमारे लिए गंगा जितनी पवित्र है।
चुप होकर माँ फिर बोली- एक बार तेरे जेठ सतू ने एक अधेड़ बाबा के जातरू[1] को यहाँ आगोर मे पैसाब करने पर कितना लताड़ा और अंत मे पैसाब की जगह की पूरी मिट्टी उसके चौलै की छाल मे डालकर आगोर की सरहद से दूर डलवाई| अब तो लोगो मे ननप[2] आ गई है| राम ही मालिक है- माँ ने गहरी उसांस भरी| पाल पर और पुरी बैवड़ मे सैकड़ों रोहिड़े होते थे उन दिनों| सुंदर-सुदंर फूल उन पर आते| अणकमाऊ[3] निकम्मों को थोड़ा-थोड़ा लालच देकर सब रोहिड़ों को खा गया दुष्टि जैफूड़ा |
[1] श्रद्धालु [2] छोटापन [3] नहीं कमाने वाला

अचानक माँ आवेषित हो गयी और तेज आवाज़ में बोली -बता नाडी का पानी खत्म हो गया तो क्या पियेंगे? धन-भीत[1] कहाँ जायेंगे? कौन नदी आती है हमारे गाँव में? कौनसी नहर सरकारें लायीं हैं हमारे वास्ते? मुझे तो गाँव के धन की चिंता है| मिनख तो आपरे करमों रा भाखर खुद बॉन्दे है।[2] माँ कहते-कहते रुआँसी हो गई थी । नाक पोछते हुए माँ ने गहरी साँस भरी और गुनगुनाने लगीं . . . .
[1] पालतू पशुओं का समुह [2] लोग अपने कर्मो के पर्वत खुद बाँध रहे हैं|

कुण केवे कुण मानेबावळो जगत साँच नी जाणे . . .
बिलखतो जल जंगल जीव केवे
ओछो होतो खेत खेतर हरियो है मैदान केवे
झरत नीर तट तालाब सरवर ओर है कुण्ड केवे
बावळो जगत साँच नी जाणे . . .

मिनखा री वैगी मोली है सोच
पवन हवा नै मैली करे है . . .
झुठा धंन्धा रे खातर
जुण आपरी काळी करे है . . .
रूखा नै जड़ सु काटे
घर ख़ुद रा आळा करे है
बावलो जगत साँच नी जाणे |

गणेश रेबारी का परिचय
गणेश रेबारी एक संपत्ति सलाहकार, लेखक और कार्यकर्ता हैं और जोधपुर (राजस्थान) में रहते हैं | वह एक घुमंतू समुदाय से हैं जो पशुओं के साथ पलायन करके गुजारा करता रहा है | वे राजनीतिक मंच के साथ-साथ अपने लेखन के माध्यम से अपने समुदाय के अधिकारों और उत्थान के लिए काम करते हैं। उनका पैतृक गाँव जोधपुर जिले का ढांढनिया है और वह कहानी में वर्णित गाँव के जलस्त्रोत के साथ बड़े हुए हैं। रियासत काल के दौरान, उनके पूर्वजों को गांव के राजस्व संग्रह का काम सौंपा गया था; स्वतंत्रता के बाद उन्होंने गाँव को अपना घर बना लिया। घुमंतू समुदाय के रेगिस्तान के निवासी होने के नाते, पानी समुदाय के जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है और समुदाय की मौखिक परंपरा में देखा जा सकता है; लेखक के समकालीन लेखन में भी इस धरोहर ने अपना हिस्सा दिया है | उनके लेखन में उनके पारस्परिक अनुभवों, भौगोलिक संदर्भ और विरासत द्वारा दिया गया यथार्थवाद दीखता है|
टिप्पणी (commentary)- Piyush Pandya
नाडीयाँ - (छोटा नाडी, नाडा कहलाता है) गाँव के तालाब हैं, जो राजस्थान के पश्चिमी शुष्क क्षेत्रों में पाए जाते हैं और क्षेत्र की कई पारंपरिक जल संचयन प्रणालियों में से एक हैं। आकार और निर्माण-तकनीकों के आधार पर कई अन्य प्रणालियाँ हैं जिन्हें तालाब, बांधी, साजा कुवा, जोहड़, पाट, बांधा, नाडा, कुंड, रपट, झालरा, टांका, बेरि, कुई, बावडी, टोबा, सरवर, सर, देई बांध, जगहा, डहरी, खडीन, भे, झील आदि के नाम से जाना जाता है। एक गाँव में, एक से अधिक नाडीयाँ हो सकती हैं। (RWH, 2020) उनका उपयोग बरसात के मौसम के दौरान प्राकृतिक-जलग्रहण (अगोर) [1] से पानी के भंडारण के लिए किया जाता है। वे आकार, गहराई, जलग्रहण, भूविज्ञान या वर्षा पैटर्न के आधार पर कुछ महीने या वर्षपर्यंत जलावृत हो सकती हैं । अन्य पारंपरिक जल संचयन प्रणालियों की तरह, नाडी अब संख्या में घट रहीं हैं (Mishra, Rjasthan ki Rajat Boondein, 1995)।
[1] Aagor: small catchment area or basin as a part of the pond that is kept clean by the community and often humanmade. Agor word is evolved from Agorana- a process of collecting.- (1995). In A. Mishra, Rajasthan ki Rajat Boondein. New Delhi: Gandhi Shanti Pratisthan.
इस तरह के सामुदायिक तालाब सामूहिक श्रम और पूंजी के साथ बनाए जाते हैं और अक्सर गाँव के व्यक्तित्व या तालाब के चरित्र के अनुसार नामित किये जाते हैं। नाडियों का रखरखाव/गहराई का काम या गाद निकालने का काम बहुत ही अनौपचारिक रूप से अक्सर पूर्णिमा या अमावस्या या किसी अन्य पवित्र दिन पर होता है; और अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों से जुड़े त्योहार के रूप में मनाया जाता है। तालाब की गाद निकालने का काम अभी भी सामुदायिक स्तर पर एक दंड स्वरुप, अकाल के दौरान जनादेश के रूप में, जन्म के समय, मृत्यु या वर्ष के किसी अन्य महत्वपूर्ण / पवित्र दिन किया जाता है। देश के कुछ हिस्सों में इस गतिविधि को ल्हास खेलना कहा जाता है। इस दिन गाँव की महिलायें विशेष रूप से नाडी के किनारे इकट्ठे होकर, गीत गाते हुए नाडी के तल से मिटटी निकाल कर पाल(bund) पर डालती हैं | [1]
[1] This paragraph is summarised based on discussions with Mr Ganesh Rebari and two books by Mr Anupam Mishra - Aaj bhi Khare Hain Talaab and Rajasthan ki Rajat Boondein
रोहिड़ा (Tecomella undulata) - रोहिड़ा शुष्क क्षेत्रों में पाया जाने वाला एक पेड़ है और अक्सर कटाव को कम करने के लिए नाड़ी के पाल पर लगाया जाता है । यह अच्छी लकड़ी देता है और रेगिस्तानी क्षेत्रों की वृक्ष प्रजातियों के बीच लकड़ी का मुख्य स्रोत है। इस पेड़ को रेगिस्तानी सागौन या मारवाड़ सागौन के नाम से भी जाना जाता है । इसका फूल राजस्थान का राज्य पुष्प है। यह अपने औषधीय मूल्यों के लिए भी प्रसिद्ध है। यह राजस्थान में अब विलुप्ति की कगार पर है|( Kalia, R.K., Rai, M.K., Sharma, R. et al, Understanding Tecomella undulate,2014)
Suggested Stories