Tikhoo and Rewa (Hindi)

Piyush Pandya

'Tikhoo aur Rewa' was composed for children with inspiration drawn from efforts of Living Waters Museum with the intent of informing the young minds about the Narmada through a story. India is a place of diverse cultures and where the river is a cultural phenomenon that connects not only geographical spaces but also temporal; that flows while blurring the lines of languages, cultures, heritage and identities; that is accessible to everyone and anyone. In the story, Tikhoo- a small marble rock traverses with the river abandoning his own comfortable abode cutting through his anxiety, impudence and ignorance while witnessing his curiosity exploring different cultural and natural heritage and becoming congenial and calm. The Narmada flows strongly in the story in the background as it does in the lives of millions of people residing on its banks. In the end, the river humbles Tikhoo and caresses him for another comfortable home.

Narmada river, Madhya Pradesh

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तीखू और रेवा


नर्मदा नदी के किनारे बसे बहुत-से शहरों के झुंड में एक है शहर जबलपुर | उस शहर के एक कोने में संगमरमर की चट्टानों का एक झुंड रहता था | भेड़ाघाट के उस झुंड को देखने कई लोग बहुत सी दूरियाँ तय करके आते थे | सफ़ेद चट्टानें जैसे दही और पनीर के बड़े-बड़े ढेर जैसे लगते थे | लोग उनको छू तो नहीं पाते थे पर उनकी खूबसूरती देखकर खुश होते थे | चट्टानों के बीच से नदी बहती और लोग नावों पर बैठ कर जाते और निहारते | चट्टानें नदी की सतह से ऊपर उठीं हुयीं थीं और लोगों को सर उठाकर उनको देखना होता था | नाव वाला मल्लाह उनको इन चट्टानों की कहानियाँ सुनाता | पूरे चाँद कि रात में ऐसा लगता कि नदी की जगह दूध बह रहा हो |

मल्लाह, जो वहां पीढ़ियों से रह रहा था, चट्टानों और नदियों को बहुत अच्छी तरह से जानता था और उनकी कहानियों को भी।

पर इन सारी खूबसूरतीओं के कारण झुंड था बेहद घमंडी और नकचड़ा। वो अपने आगे नदी को कुछ समझता ही नहीं था | उसको लगता कि नदी बेकार में बीच में आती है, जब हम इतने सुंदर हैं और लोग हमें देखने आते हैं तो नदी का इससे क्या लेना देना , उसे हट जाना चाहिए।संगमरमर की उन चट्टानों की उम्र हज़ारों साल थी, उन्होंने कई मौसम देखे थे, भौगोलिक परिवर्तन देखे थे | उन चट्टानों की मान्यता थी कि चंद्रमा उनका पूर्वज है और चट्टानें उनकी संतानें |

और हजारों साल पहले जब चंद्रमा उन्हें यहाँ छोड़ने आया था तब उन सबको चाँद ने दूध से नहला धुला के अच्छे से तैयार करके भेजा | तब से वो गोरे के गोरे हीं हैं | उनको अपनी ऊँचाइयों और गोरे रंग पर बड़ा गुमान था | संगमरमर कि चट्टानें इतनी तीखी और नुकीलीं थीं कि वो किसी पक्षी को भी अपने ऊपर नहीं बैठने देतीं | उनको लगता था कि उनके ऊपर जो काली-नीली धारियाँ हैं, जैसी हर संगमरमर के पत्थर पर होतीं हैं, वो धारियाँ पक्षियों के पंजों से बनी हैं और जो हरी धारियाँ हैं वो पौधों के पत्तों से | तो बात इतनी सी थी कि इस चट्टानों के झुंड की किसी भी जीव-जंतु या पेड़ पौधों से नहीं पटती थी, बिलकुल भी नहीं बनती थी। यहाँ तक कि वो इंसानों को भी खुद से नीचा समझते | हालाँकि चूंकि उन्हें लगता था कि इंसान उन्हें देखने और तारीफ़ करने आते हैं तो वे ज्यादा कुछ कहतीं नहीं थीं उन्हें  पर  आने वाले सभी इंसान और आदम-जात उन्हें नहीं भाते थे | इंसान उनकी इस भावना से बिलकुल बे-खबर थे |

बहुत से लोग सिर्फ नर्मदा नदी के लिए ही आते थे और इन पत्थरों पर ध्यान नहीं देते थे | ये लोग नर्मदा को अपनी माँ मानते थे | चट्टानों का झुंड लोगों को कुछ देता तो नहीं था पर नर्मदा, नर्मदा जिसे वे प्यार से नरबदा या रेवा भी कहते थे, उन्हें पीने को पानी देती, खेतों के लिए पानी देती, मछलियाँ खाने को देती, तैरने के लिए जगह देती, घर बनाने के लिए बहुत सी रेत देती, 

बच्चों के लिए रेत के सुंदर-सुंदर किनारें देतीं जहाँ बच्चे मस्ती करते, दौड़ते और कूदते, घर बनाते; उन किनारों पर लाल-लाल तरबूज और पीले-खरबूजे भी उगाये जाते, किनारों पर लोग पूजा करने भी आते, औरतें शाम को भजन गातीं, नर्मदा-परिक्रमा एक पुण्य का काम समझा जाता और परिक्रमा करने वाले हजारों श्रद्धालु हर साल यहाँ से गुजरते | नदी के किनारे रहने वाले मल्लाह, मछुवारे, धीमर, गोंड नदी से सीधे संपर्क में थे और उनकी रोज़ की ज़रूरतों और आमदनी में नदी का बड़ा योगदान था  |

पारंपरिक तौर पर ये लोग नदी को बहुत अच्छी तरीके से जानते थे और उसकी सेवा करते, ध्यान रखते,उसमे प्रदूषण नहीं फैलने देते। बदले में नदी भी उनको बहुत कुछ देती, मछलियाँ देती। ऐसे ही साधू भी किनारों पर आते और आम लोग भी | पर मल्लाहों, मछुवारों, धीमरों, गोंडों का नदी पर सबसे पहला हक़ था और असल मायने में नर्मदा इनकी माई थी याने कि माँ| चट्टानें इन लोगो को पसंद नहीं करतीं थी | पर उनकी नापसंदगी पर कोई ध्यान नहीं देता था | जो साधू नरबदा के किनारे आते वो लोगो को समझाते कि कोई आपसे बेमतलब बुराई रखे या आपसे चिडे़ उस पर ध्यान मत दो | लोग साधू-फकीरों कि इज़्ज़त करते और उनकी बात सुनते और गुनते थे | अनुभवी, तजुर्बेकार और आलिम लोगों कि बातें हमें सुननी और माननी चाहिए |

खैर, पर कुछ शैतान बच्चे बड़ों कि बात नहीं मानते, ये संगमरमर ऐसे ही शैतान बच्चे थे।

ऐसे ही एक बार की बात है कि एक छोटा-सा नुकीला चट्टानी पत्थर था, एक संतरे के बराबर या रूबिक्स क्यूब के बराबर जिसका नाम था तीखू | वह एक साल पुराना था ।उसके ऊपर पड़ा पत्थर एक साल पहले टूट कर गिरा था। तीखू अपने आसपास के पत्थरों में सबसे उजला और गोरा चिट्टा था और तीखू  बाहर के वातावरण में पहली बार आया। तीखू पर एक सलेटी रंग कि धारी थी  बाकी वह पूरा सफ़ेद था | वह आसपास कि चट्टानों में सबसे ऊपर बैठा था और वहाँ से सबको देखा करता | वह इतना सफ़ेद था कि सूरज कि रोशनी को परावर्तित कर पक्षियों को परेशान करता, और उनका रास्ता भटकाता |

तीखू को लगता था कि उसके ऊपर का पत्थर कैसे टूट कर जा गिरा, इतना बेवकूफ़ कोई भला कैसे हो सकता है ? उसे अपने रंग, मज़बूती और नुकीलेपन पर बड़ा गुमान था | और उसकी सारी सतहें बेहद तीखीं, खुरदरी और नुकिलीं थीं | एक बार तो एक पत्ता उसके पास से उड़ता हुआ गया और कट गया | एक बार एक बच्चे की पतंग उससे उलझ कर कट गयी | एक बार एक कबूतर ने बैठने कि कोशिश कि और तीखू ने उसके पंजे ज़ख़्मी कर दिए | और उसने उस पत्ते, पतंग और कबूतर को काटने के बाद उन का बहुत मज़ाक उड़ाया था  |तीखू के साथ एक बड़ी चट्टान थी जिसका नाम था शैलू, शैलू एक बड़े कद्दू जितनी थी। तीखू ने शैलू से पूछा – ये नदी कहाँ से आई है, इस नदी को हर जगह जाने की इतनी जल्दबाजी क्यूँ हैं, क्या ये कहीं रूकती नहीं है?

शैलू, जो थी संगमरमर पर थी समझदार और उसे वातावरण में आये कुछ अरसा हो गया था | वह घमंडी तो थी पर तब भी इंसानों से डरती थी, पानी और नदी की इज़्ज़त करती थी क्योंकि उसने एक भारी बारिश में अपने जैसी दूसरी चट्टानों को टूटते और डूबते देखा था | पानी जितना जीवन के लिए जरूरी है उतना ख़तरनाक भी हो सकता है।अगर हम पानी की इज्ज़त नहीं करेंगे तो वह भी हमारी इज्ज़त नहीं करेगा। वो प्रदूषण के कारण थोड़ी काली भी हो गयी थी और कभी-कभार तीखू के तीखे मज़ाक झेला करती | वह बोली- तीखू! हमारा काम है खड़े रहना, हमें नदी से क्या? दूसरे क्या करते हैं उसे छोड़ कर हमें अपनी बातों पर ध्यान देना चाहिए  |

तीखू ने कहा – लेकिन मैं यहाँ बैठे-बैठे बोर हो गया हूँ, यहाँ से पांच चट्टान दूर क्या है वो भी नहीं दीखता और १०० चट्टान दूर क्या है वो भी नहीं | क्या पूरी दुनियाँ में सिर्फ चट्टानें ही चट्टानें हैं? ये नदी क्या चाँद से निकलकर सूरज तक जाती है? मैंने एक पक्षी से सुना था कि दुनियाँ में और भी तरह की, रंगों की चट्टानें हैं | क्या ये सच है?

शैलू ने टालने कि कोशिश की | शैलू ने जवाब दिया- नदी का काम बहना होता है, उसका काम ही है सब लोगों तक पहुँचना और लोगों कि मदद करना |

तीखू : तो क्या हमारा कोई काम नहीं? क्या मैं यहाँ से हज़ार चट्टान दूर क्या है, कभी भी जान नहीं पाऊँगा, देख भी नहीं पाऊँगा |

शैलू : नदी हमारे बीच में से ही होकर तो बहती है | हम उसे सम्हालते हैं, नहीं तो यह तो जाकर शहर डुबो दे | इसलिए हमें यहीं रहना होगा | हम कहीं गए तो जबलपुर शहर डूबा समझो |

तीखू ने गर्व से कहा- हम बड़े मजबूत हैं इसलिए | पर ये आती कहाँ से है और जाती कहाँ है?

इतना खुश मत हो, इसके पानी ने हमें काट काट कर इतना रास्ता बनाया है | खैर एक बार कुछ वैज्ञानिक आये थे, उनकी बाते मैंने चुपके से सुन ली, कोई अमरकंटक नाम की जगह है, वहां से ये नदी आती है | 

वो हमसे भी बड़े पहाड़ जिसका नाम मैकल है वहाँ से निकल कर देश के पश्चिमी छोर तक जाती है | जैसे जबलपुर है वैसे भरूच नाम का दूसरा शहर है | वहाँ खम्बात कि खाड़ी में समंदर में मिल जाती है |

तीखू :इसलिए नदी का नाम मैकलसुता भी है ? यानी मैकल की बेटी?

शैलू ने टाला-और नहीं तो क्या |

तीखू: पर वो तो हमारे जितना गोरा नहीं होगा, हम कितने गोरे हैं | हम चाँद कि औलादें | इस नदी में तो कैसे बेकार के अजीब शक्लों वाले पत्थर है | और तुम भी कैसी बात करती हो, मैंने तो काँच वाले मांजे को काटा है, ये पानी भला हमें कैसे काट सकता है ?

तुम बस किसी की नहीं सुनते | शैलू ने कहा और सोचा तीखू को समझाना बेकार है |

तीखू :चलो पानी में अपनी शक्लें देखें और उन पत्थरों को मूह चिड़ायें | उन्हें बताएं कि ताजमहल भी हमारी जात के पत्थरों से बना है |

ऐसा बोल कर तीखू और शैलू दोनों नदी में झाँक कर देखने लगे, पास के गुजरते कौवे ने नसीहत देते हुए कहा भी कि इतना मत झुको पर तीखू उसके रंग का मजाक उड़ाने लगा| नदी के दूसरे ओर की बड़ी चट्टानों ने भी उन्हें आगाह किया पर नदी के शोर में वो कुछ सुन नहीं पाए | शैलू तो बड़ी थी और मजबूती से अपनी बड़ी चट्टान से जुडी हुयी थी, पर तीखू, तीखू तो टेनिस कि बाल जितना था,

जैसे मेले में या माँल में मस्ती करने वाले बच्चे खो जाते हैं वैसे उसका पत्थर का हाथ छूटा, चट्टानी पैर फिसले और वो या शैलू कुछ समझ पाते उससे पहले ही वो धढ़ाम से नदी में आ गिरा | नरबदा ने छपाक कि आवाज़ के साथ उसको अपनी गोद में ले लिया |

कुछ देर बाद तीखू को होश आया कि वो कहाँ हैं | उसके आसपास अब हरा-नीला पानी ही पानी था | नदी जिसका वह मज़ाक उड़ा रहा था, उसके अंदर ही वह आ गिरा था | पहले तो उसे यह लगा कि अच्छा हुआ वह इंसानों कि तरह साँस नहीं लेता नहीं तो वह पानी के अन्दर साँस कैसे लेता | फिर उसे समझ आया कि वापस जाना कितना मुश्किल है और वो बेतरह घबरा गया | पत्थर के आंसू जो धूल की शक्ल में निकलते वो पानी में घुलने लगे | जहाँ वह चट्टानों के ऊपर, सबसे ऊपर ताज की तरह सजा रहता और उसे सब आते जाते देखते थे, अब वह यहाँ नदी के तल में पड़ा हुआ था, कीचड़ से और पानी से सना हुआ | और उसपर कोई ध्यान नहीं दे रहा था | उसने वही पड़े पड़े कितने दिन गुज़ार दिए, और किसी ने उसपे ध्यान नहीं दिया, वह नदी के तल  से ऊपर उठी बाकी संगमरमर की चट्टानों को देखता रहता और दुखी होता | उसे गुस्सा भी आता कि शैलू ने उसे रोका क्यूँ नहीं, उसे शैलू भी दिखती और वह आवाज़ लगाने कि कोशिश करता तो सिर्फ बुलबुले ही निकलते |

वो इतना नीचे गिर गया था कि उसपर नदी कि गाद और मिट्टी जमती जा रही थी और वह सफ़ेद नहीं रह गया था | एक ही जगह पर पड़े रहने से उसके ऊपर हरी काई जमती जा रही थी | वहाँ उसे पक्षी दीखते थे यहाँ अब मछलियाँ दिखने लगीं थी, वहाँ बादल दीखते यहाँ बुलबुले दिखने लगे थे |वहाँ  हवा लगती थी यहां पानी चुभता था। उसे पता नहीं चला वह यहाँ कितने दिनों तक पड़ा रहा | कोइ मछली पास आती तो वह उसे गुस्से में अपने नुकीले हिस्से से ज़ख़्मी कर देता |

 

कोई केकड़ा उसके नीचे छिपाने या घर बनाने आता तो वह बौखला कर वहाँ से हट जाता या उसे भगा देता | पर धीरे-धीरे उसकी धार कुंद पड़ती जा रही थी और वह घुलता जा रहा था | उसके तीखे नख्श तीखे नहीं रह गए थे  | उसे बाहर घूमने वालों की आवाज़ आती पर वह उन्हें आवाज़ नहीं दे पाता था | धीरे-धीरे उसने नदी में रहने वाले जीवों को परेशान करना छोड़ दिया और अकेले रहने लगा। एक दिन नदी के किनारे एक फ़कीर आया जो एक गीत गा रहा था |

चल रे मन नदिया के भाव

ठहर नहीं कोई गांव

जोड़ तोड़ के गणित को छोड़

होगा सबका नास

जितनी भारी गठरी होवे

उखड़े उतनी साँस

समदरसी ने दिया सभी को

थोड़ा थोड़ा मास

इक जोड़ी भर हाथ दिये हैं

दियें हैं जोड़ी पाँव

पैर, चाक और पाँख नहीं है

फिर भी चलती नाव

चल रे मन नदिया के भाव

ठहर नहीं कोई गाँव

तीखू के पास से एक एक रोहू मछली गुज़र रही थी वह भी वही गीत गाने लगी | और साथ में तीखू को गीत के बोल समझाने लगी |

हमें कहीं भी रुकना नहीं चाहिए, कोई अवरोध या बाधा आने पर भी नहीं और इस नदी से सीख लेते हुए चलते जाना चाहिए | ऐसी आदतें या ख़यालात जो तरक्कीपसंद न हो, जो हमारी प्रगति और तरक्की में रोड़ा बने वो  मुसाफिर के लिए भारी गठरी/ सामान की तरह होतें है,ऐसा सामान या ऐसी गठरी सफर को परेशानी भरा बनाती है। ऐसे ख़यालात को पीछे छोड़ना यानि उस गठरी को हल्का करना है | ऐसे खुदगर्जी, घमंड और नकचड़ेपन के सामान को पीछे छोड़ देना चाहिए | वह प्रकृति जो ईश्वर रुपी है और जो सबको एक नज़र से देखती है, उसने सबको बराबर हिस्सा दिया है, अपनी कठिनाइयों और सीमाओं को छोड़ हमारे पास जो भी है उस ही के बूते पर हमें आगे बढ़ना चाहिए, जैसे नाव के पास न पाँव होते हैं न पंख और न ही पहिये फिर भी वो आगे बढती है | उस तरह ही ज़हनी या मानसिक या शारीरिक रूप से हमें कही भी ठहरना नहीं चाहिए |

इस गीत ने तीखू को याद दिलाया कि तीखू हमेशा से ही चट्टानों के पार देखना चाहता था | पहले वह स्थिर था और कहीं आ जा नहीं सकता था, पर अब वह चलनशील हो चुका था अब वह नदी के साथ और नदी के सहारे आगे बढ़ सकता था, सो उसने तय किया कि वह आगे बढ़ने कि कोशिश करेगा | उसने रोहू मछली को शुक्रिया कहा और आगे बढ़ने का ख्याल किया |

तीखू धीरे धीरे आगे बढ़ने लगा, और उसने कई शहर पार किये, और उसे नर्मदा नदी के बारे में कई जानकारियाँ मिली जो उसे पहले नहीं पता थी कि कैसे यह नदी भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे पुरानी नदियों में से एक है, गंगा और यमुना से भी पुरानी और ज़मीन का वह हिस्सा जिसमे वह बहती है जिसे गोंडवानालैंड कहा जाता है  जो हिमालय से भी पुराना है | उसे यह जानकार अच्छा लगा कि भले ही हिमालय जबलपुर कि संगमरमर कि चट्टानों से ऊंचा हो पर चट्टानें उम्र में कई हज़ार साल हिमालय से बड़ीं हैं | राह में मिलने वाले मगरमच्छों ने उसे बताया कि किस तरह हज़ारों-लाखों साल पहले मगरमच्छों के नाना, परनाना और लकड़नाना याने कि डायनासोर्स नर्मदा के किनारे रहा करते थे और विभिन्न स्थानों पर पुरातात्विक अवशेष इस बात कि गवाही देते हैं |

कुछ नदियाँ पहाड़ों से निकलती हैं और कुछ तालाबों से | हिंदी में पहाड़ों से निकलने वाली नदियों को गिरिजा यानि कि पहाड़ से जन्मी, तालाब से निकलने वाली नदियों को सरोजा कहा जाता है यानि कि तालाब से जन्मी । जैसे दूसरी एक बड़ी सिंधु नदी सरोजा है यानि कि वो एक तालाब से निकलती है नर्मदा गिरिजा ।नर्मदा मैकल पर्वत से निकलती है | राह में वह कई जंगलों से गुजरा, जिनमे बांधवगढ़ नॅशनल पार्क, पन्ना नॅशनल पार्क, संजय नेशनल पार्क और सतपुड़ा टाइगर रिज़र्व मुख्य हैं | उसे होशंगाबाद शहर आते-आते यह भी पता चला कि कैसे नदियों में और भी छोटी नदियाँ आके मिलती हैं और मुख्य नदी को बड़ा बनाती हैं, नर्मदा कि सहायक नदियों में तवा, हिरन, कोलार वगैरह हैं |

उसे नर्मदा पर बनने वाले दो बड़े बांधों इंदिरा सागर और सरदार सरोवर का भी पता चला | उसे यह पता चला कि नर्मदा भरत के मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों से होकर गुज़रती है | इस बीच तीखू को अपने जैसे कितने पत्थरों से मिला जो अलग-अलग रंगों के अलग-अलग आकारों के थे, कोई अमरकंटक से चले आ रहे थे कुछ सतपुड़ा और विन्ध्याचल पर्वत श्रेणियों से रास्ते में आ मिले | यहाँ उसने विविधता को जाना और समझा कि रंग, रूप, भाषा, संस्कृति से लोग भले ही अलग हों पर सब को प्रकृति ने अपने प्यारे हाथों से बनाया है और सबकी अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं | इस तरह तीखू के मन में नर्मदा के लिए सम्मान बढ़ता जा रहा था | उसे राह के साधुओं से पता चला कि नर्मदा देश कि सात सबसे पवित्र नदियों में से एक हैं |

इस बीच वह धीरे धीरे घिस-घिस के नदी के बाकि पत्थरों कि तरह अपना नुकीलापन खोता जा रहा था, उसे जैसे-जैसे इन जानकारियों के बारे पता चल रहा था और जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा था वह धीरे-धीरे नदी के बाकी पत्थर की तरह घिस-घिस कर अपना तीखापन, नुकिलापन और बदतमीजियां खोता जा रहा था और अपने आसपास के जीव जंतुओं के साथ घुल मिल के रहता था | उसे किसी को नुकसान पहुँचाना बंद कर दिया था और अगर कोई मछुवारा या भक्त उसके ऊपर पाँव भी रख देता तो तीखू चुभने की बजाय धीरे से दूर हो जाता | वह पनकौवों से नर्मदा के केकड़ों और छोटी मछलियों कि हिफाज़त भी करता |

उस ने यह समझा कि मिलजुल कर ही रहने में भलाई है, जैसे काली रात और गोरा चन्द्रमा मिलकर रहते हैं, नर्मदा में झींगे, मचलियाँ, कछुए और अन्य जंतु मिलके रहते हैं।

इस तरह तीखू अब गोलमटोल और बहुत ही नम्र और विनीत हो गया था | और वह लुड़कते-लुड़कते महेश्वर पहुँचा | महेश्वर जिसे पुराने समय में महिष्मति के नाम से जाना जाता था |नर्मदा के किनारे के बहुत से पुरातन शहरों में से एक महेश्वर का उल्लेख इस देश के पौराणिक और मौखिक इतिहास में, जनजातीय कहानियों में और संस्कृति में पाया जाता है | महेश्वर पारंपरिक माहेश्वरी-वस्त्र का भी केंद्र है | पारंपरिक रूप से वस्त्र उद्योग को हमेशा से पानी की ज़रूरत ज्यादा रही है | चाहे वह रंगाई का काम हो या फिर प्राकृतिक -रेशों की सफाई या ब्लीचिंग का काम |पानी कपड़ों के लिए हमेशा ज़रूरी रहा है। इसलिए माहेश्वरी-वस्त्रोद्योग महेश्वर में बड़ा फला-फूला | महेश्वर जैसे कितने ही और भी शहर नर्मदा नदी के किनारे  हैं जिसके बारे में तीखू को पता चला। उस यह भी पता चला की सभ्यता के लिए नदी या किसी पानी के स्रोत का होना कितना ज़रूरी है।

तीखू यहाँ एक कछुए से मिला जो बहुत बूढा था, उसने तीखू को नर्मदा की और भी कई कहानियाँ सुनाई और बताया कि नर्मदा में पाए जाने वाले हर पत्थर को लोग कितना पवित्र मानते हैं और मंदिरों और घरों में ले जाते हैं  |

तीखू ने आश्चर्य से पुछा- तो क्या मैं भी पवित्र हूँ?  तो क्या मुझे भी लोग मंदिर ले जायेंगे ?

कछुए ने धीरे धीरे मुस्कुराकर कहा- जो भी संसार का भला चाहे, परेशानी में भी खुश रहे और आगे बढता रहे, सबसे प्यार से पेश आये और लोगों के काम आये, लोगो की मदद करे वो पवित्र और पाक है | क्या तुम ऐसे हो?

तीखू थोड़ी देर सोचता रहा |

कछुए ने बहुत धीमी आवाज़ में धीरे धीरे कहा - अगर तुम्हे कोई मंदिर ले जाए या न ले जाए, तुम अगर अभी तक किसी के काम न आ सके हो तो अब आने की कोशिश करना | तुम्हारा नसीब तुम्हारे हाथ में नहीं है, वह नर्मदा के, प्रकृति के  हाथ में है | तुम अगर किसी के काम आ सके तो तुम सम्मानीय और पवित्र हो |

तीखू ने ख़ुशी से डोलते हुए हामी भरी | और लहरों के साथ नाचने लगा| उसे लगा कि अब वह चन्द्रमा जैसे आकृति का हो गया है| और जब वह रात को चंद्रमा को देखता तो उसे लगता की वह खुद को देख रहा है।

कछुआ फिर बोला – तुम्हारा नाम तीखू आखिर है क्यूँ ?

- पता नहीं, मुझे सब शुरू से इस ही नाम से जानते हैं |

- पर तुम न तो तीखे हो न ही नुकीले, तुम तो गोल हो |

- मैं पहले हुआ करता था, नर्मदा नदी ने मुझे गोल बना दिया, अब मैं और सुन्दर लगता हूँ, एक दम बड़े कंचे जैसा या बड़े मोती या रसगुल्ले कि तरह |

कछुआ फिर बोला- तो तुम्हारा नाम आज से गोलू रख देतें हैं | ठीक है?

 

और इस तरह गोलू कुछ जवाब दे पता उससे पहले ही उन दोनों को एक मल्लाह जो मछुवारा भी था आता दिखा जो अपने बेटे के साथ था | उन्हें आता देख कछुए ने आदतन अपना सर अपने खोल में छुपा लिया, पर तीखू | नहीं-नहीं गोलू |  गोलू तो अब सबका दोस्त था तो वह छुपा नहीं | उसने सुना कि वो बाप बेटे मछली तौलने के लिए तराजू का एक बाट या वज़न ढूंढ रहें हैं | गोलू को कछुए कि बात याद आई और वह थोडा आगे सरक आया, नदी ने भी मदद की और उतने हिस्से का पानी साफ़ कर दिया ताकि गोलू दिखने लगे, और अपने लहरों से गोलू को आगे धकेलना शुरू कर दिया | तीखू याने कि गोलू को नदी ने अपने पानी से घिस-घिस के साफ़ और पहले से और अधिक सुंदर कर दिया था| यह सुंदरता उसके सफ़ेद रंग से नहीं बल्कि उसके नम्र व्यवहार से आई थी |

नदी और गोलू की मेहनत रंग लायी और मछुवारे के बेटे ने गोलू को देख लिया और अपने पिता को दिखाते हुए बोला- बापूजी, देखिये कितना खूबसूरत पत्थर है, इसका बाट अच्छा बनेगा | इस पर एक धारी भी है याने कि एक धारी का एक किलो | इस तरह तीखू याने कि गोलू ,मछुवारे और उसके बेटे के संग हो लिया | उसे कई नए दोस्त मिले और उसे नया काम मिला | अब वह मेहनत से तराजू और मछुवारे का हाथ बँटाता | वह उस जगह पर जा बैठा जहाँ उसे सच में, असल मायनों में प्यार और इज़्ज़्त मिलने लगी | और मंदिर में न होने के बावजूद मछुवारा तराजू के साथ उसके बात यानि हमारे गोलू की भी वार-त्योहारों पर पूजा करता | मिलजुल कर रहने और नम्रता के मायने गोलू को आखिर समझ में आये।

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